बुनियादी दीनी इस्तलाहात
सब्र
क़ुरआन की ज़बान में बेबसी, लाचारगी या मुंह लटकाकर, बैठने को सब्र नहीं कहते हैं जैसा कि लोगों का आम तसव्वुर है। बल्कि क़ुरआन में सब्र का मतलब है लगातार हालात का सामना करते चले जाना, कैसे भी हालात हों बिना-रुके बिना-थके अपनी कोशिश में लगे रहना। मुश्किलों में कमज़ोर नहीं पड़ना बल्कि डटकर हर तरह की मुश्किलात का मुक़ाबला करना।
क़ुरआन की रोशनी से सबूत और दलीलों के लिए ये वीडियो देखें-
काफ़िर
काफ़िर लफ्ज़ के तीन मतलब होते हैं–
छुपाने वाला, नाशुक्री करने वाला और इंकार करने वाला
अल्लाह ने जो नीमतें, जो इल्म, जो हिदायत, जो दीन और जो उसूल दुनिया के इंसानों के लिए भेजा है उसको लोगों से छुपाना, उसको अपनी जागीर समझ लेना, उसकी नाक़द्री करना, उसका सही हक़ नहीं अदा करना, उसको हक़ मानने से इंकार करना कुफ्र कहलाता है।
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तक़वा
तक़वा लफ्ज़ का जो माद्दा है उसका मतलब होता है ‘बचना‘। क़ुरआन में यह लफ्ज़ अल्लाह की नाफ़रमानी से बचने के लिए इस्तेमाल हुआ है। जिसका असल मफहूम है कि अल्लाह से इस दर्जे की मुहब्बत होना कि उसकी रज़ा के ख़िलाफ़ कुछ करने का दिल ही न करे। यह ख़्याल रहना कि कहीं हमसे कोई ऐसा अमल न हो जाए जो अल्लाह को नापसंद है। दिल में इस बात का ख़ौफ होना कि हमारे किसी अमल की वजह से अल्लाह हमसे नाराज़ न हो जाए। अल्लाह से शदीद मुहब्बत होने की वजह से उसकी नाफ़रमानी से बचना ही तक़वा है।
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मग़्फिरत
मग़्फिरत का मतलब होता है ‘ढ़क देना‘। गुनाहों की मग़फिरत का मतलब है कि गुनाहों को ढ़क देना, छुपा देना, उनका बुरा नतीजा सामने आने से रोक देना। हमारे गुनाहों से हमें जो नुकसान पहुंच सकता है उससे हमको बचा लेना, हमारी ग़लतियों के बुरे नतीजों से हमारी हिफाज़त करना, अल्लाह की तरफ़ से हमारी मग़फिरत है।
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जिहाद
जिहाद का जो मफहूम आज लोगों के ज़हनों में आम है वह बिल्कुल ग़लत है, जिहाद जंग को या क़त्ल करने को नहीं कहते। जिहाद का असल मतलब है ‘कोशिश करना‘। अमन और अदल का निज़ाम क़ायम करने के लिए मुसलसल जद्दोजहद में लगे रहना। लोगों की भलाई के लिए एक बेहतर समाज बनाने के लिए मुसतक़िल अपने जान और माल से कोशिश में लगे रहना।
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तस्बीह
तस्बीह लफ्ज़ का माद्दा है ‘स‘ ‘ब‘ ‘ह‘, जिसका लफ्ज़ी मतलब होता है ‘तेज़ी से गुज़र जाना‘, ‘फ़ुर्ती के साथ निकल जाना‘।
तो अल्लाह की तस्बीह करो मतलब अल्लाह के काम में तेज़ी से लग जाओ। जिस तरह ये पूरी कायनात अल्लाह के मंसूबों को पूरा करने के लिए फ़ुर्ती से लगी हुई है। उसी तरह अल्लाह का जो हुकम है जो इरादा है उसे पूरा करने के लिए अपनी सब क़ुव्वत से अल्लाह के दिखाए हुए रास्ते पर तेज़ी से चल देना, ही तस्बीह का असल मफहूम है।
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तवक्कुल
तवक्कुल लफ्ज़ वकील के माद्दे से बना है। आमतौर से तवक्कुल का मतलब समझा जाता है भरोसा करना जो कि कुछ हद तक ठीक है, लेकिन तवक्कुल इससे वसी मतलब रखता है।
मिसाल के तौर पर जब हम अदालत में अपना पक्ष रखने के लिए वकील करते हैं तो हम बस ऐसे ही उसपर भरोसा करके मुत्मइन नहीं हो जाते हैं कि अब ये सब संभाल लेंगे हमें कुछ करने की ज़रूरत नहीं है बल्कि हम अपनी तरफ़ से सब तरह के सबूत, काग़ज़ात और गवाह पेश करते हैं, अपनी सारी बातें रखते हैं, अपनी तरफ़ से हमसे जो बन पड़ता है वो सब कुछ करते हैं, उसके बाद अपना मुकदमा वकील के हवाले करते हैं।
इसी तरह से अल्लाह पर तवक्कुल का ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि अपनी तरफ़ से सब कोशिशें छोड़कर बिल्कुल मुत्मइन हो जाएं कि अल्लाह तो सब संभाल ही लेगा, बल्कि तवक्कुल का मतलब है कि हमारे हाथ में जो भी है हम अपनी तरफ़ से वो सब कोशिश करें, उसके बाद जो चीज़ें हमारे बस में नहीं हैं वो अल्लाह पर छोड़ दें, कि ऐ अल्लाह हमने अपनी तरफ़ से सब कोशिश कर ली है, अब जिन चीजों पर हमारा ज़ोर नहीं है, जिनसे हम वाक़िफ नहीं हैं वो आप अपने फ़ज़ल से हमारे लिए आसान कर दीजिएगा, उसे संभाल लीजिएगा। इसे तवक्कुल कहते हैं।
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एहसान
हमारी ज़बान में एहसान समझते हैं कि किसी को अपने कर्ज़ तले दबा दिया जाए, और जिस पर एहसान किया गया है ज़िंदगी भर के लिए उसका सर झुक जाए, लेकिन क़ुरआन में एहसान का ये मतलब बिल्कुल नहीं है, एहसान लफ्ज़ के माद्दे में हुस्न आता है। हुस्न का मतलब है ख़ूबसूरती, ऐसा सुलूक या अमल जिसमें हुस्न (ख़ूबसूरती) हो उसे एहसान कहते हैं। हुस्न तवाज़ुन से आता है, जहां हर अज्ज़ा अपने सही तनासुब में मौजूद हो वहीं हुस्न होता है। कुछ भी ज़्यादा कम हो जाए तो हुस्न नहीं रहता। इसलिए वो निज़ाम जिसमें सबको बराबर समझा जाए, जहां हर चीज़ अपने तवाज़ुन में हो, कोई ऊंचा–नीचा नहीं हो बल्कि जिसको जैसा होना चाहिए वैसा ही हो, वो एहसान का निज़ाम होता है। और लोगों के साथ हुस्न–ए–सुलूक, जिसमें तवाज़ुन हो, जिसमें कोई किसी को दबाए नहीं, बल्कि अदल हो, अगर किसी के पास कोई चीज़ ज़्यादा है तो वो जिसके पास कम है उसको बिना तकब्बुर किए और बिना जताए दे दे, क़ुरआन की ज़बान में उसे एहसान कहते हैं।
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ज़िक्र
ज़िक्र का लफ्ज़ी मतलब है याद करना और याद दिलाना, लेकिन क़ुरआन में अल्लाह के ज़िक्र से मुराद है कि इस महसूस क़ायनात में अल्लाह की क़ुदरत, उसकी सिफ़ात और उसके ग़ैर मुतबद्दिल क़ानून पर ग़ौर–ओ–फिक्र के नतीजे में अल्लाह की ग़ैर महसूस ज़ात की मौजूदगी का एहसास करना और लोगों को इसी महसूस क़ायनात की दलीलों के ज़रिए अल्लाह की मौजूदगी का एहसास कराना।
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शुक्र
शुक्र सिर्फ ज़बानी नहीं होना चाहिए बल्कि दिल में शुक्रिया का एहसास होना चाहिए। दुनिया के लोगों को तो धोखा दिया जा सकता है झूठा शुक्र अदा करके लेकिन वो जो दिलों के हाल जानता है उसको धोखा नहीं दिया जा सकता है।
नीमत की क़द्रदानी के जज़्बात दिल में होना, फ़िर उसका इज़हार करना। अल्लाह की दी हुई नीमत का एहसास, उसकी क़द्र और उसका सही इस्तेमाल करना ही असल शुक्र है। अल्लाह के कलाम को छुपाकर नहीं रखना, बल्कि उसको लोगों तक पहुंचाना, नीमत को छुपाना या नीमत का इंकार करना या नीमत का ग़लत इस्तेमाल करना भी नीमत की नाशुक्री है।
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तौबा
तौबा का मतलब होता है पलटना। अल्लाह ने अपने रसूलों और अपने कलाम के ज़रिए हमारी रहनुमाई की है। उसने हमें सीधा रास्ता बता दिया है जिसपर चलकर हमें कामयाबी मिलेगी। अब अगर हम अपनी ख्वाहिशात की पैरवी करते हुए शैतान के बहकावे में आकर ग़लत रास्ता इख़्तियार कर लेते हैं और उस रास्ते पर आगे बढ़ते चले जाने के बाद जब अपनी ग़लती का एहसास होता है और अपने किए का पछतावा होता है तो उसे नदामत कहते हैं, और इसके बाद जब सीधे रास्ते की तरफ़ पलटते हैं तो इस पलटने को तौबा कहते हैं और सीधे रास्ते पर आगे चलने को इस्लाह कहते हैं।
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हम्द
हम्द ऐसी हक़ीक़ी तारीफ़ को कहते हैं, जिसमें जिसकी तारीफ़ की जा रही है वो वाक़ई उस तारीफ़ के क़ाबिल होना चाहिए, कोई झूठी तारीफ़ न हो या सिर्फ किसी की चापलूसी करने के लिए तारीफ़ न की जाए। और जो तारीफ़ कर रहा है वो किसी के दबाव में आकर या सिर्फ़ आदत के तौर पर तारीफ़ न कर रहा हो बल्कि वाकई अपनी अक़्ल से सोच समझकर, शऊरी तौर पर, दिल से कर रहा हो।
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शफ़ाअत
शफ़ाअत के बारे में लोगों का जो आम तसव्वुर है कि अल्लाह वाले और औलिया उनका नाम लेने वाले या उनसे अक़ीदत रखने वाले लोगों की पूरी भीड़ को दोज़ख़ के अज़ाब से बचाकर जन्नत में ले जाएंगे, वो क़ुरआन के बिल्कुल ख़िलाफ़ है।
शफ़ाअत लफ्ज़ का मतलब है किसी के साथ खड़े हो जाना– शहादत या गवाही के तौर पर।
शफ़ाअत अल्लाह के हुक्म से होगी कोई भी वली या अल्लाह वाला अपनी मर्ज़ी से किसी के लिए सिफारिश नहीं करेगा, बल्कि अल्लाह तआला अपनी मसलिहत के मुताबिक जिसके लिए हुक्म देगा और जिसको देगा, वो उसके हक़ में अल्लाह की बारगाह में गवाही देगा। और अल्लाह की मसलिहत भी उसी के लिए होती है जो वाक़ई उसका हक़दार होता है।
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ज़ुल्म
ज़ुल्म सिर्फ किसी को मारने–पीटने को नहीं कहते हैं बल्कि ज़ुल्म का असल मतलब है तवाज़ुन या सन्तुलन का बिगड़ जाना। जिसका जो सही मक़ाम और हैसियत होना चाहिए वहां से या तो ख़ुद हट जाना या दूसरे को हटा देना। जो जिस काम के लिए है, या जिसकी जो जगह या हैसियत है उसमें ज़रा सी भी ज़्यादती या कमी होना, ज़ुल्म है।
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तक़दीर
तक़दीर लफ्ज़ क़द्र से बना है। क़द्र का मतलब होता है अंदाज़ा या ग़ुमान, अल्लाह तआला के अपनी इस पूरी कायनात में मौजूद हर तख़लीक़ के बारे में कुछ अंदाज़े हैं, अल्लाह की इस क़द्र को ही तक़दीर कहते हैं। लेकिन इंसान जो कि बइख़्तियार मख़लूक़ है, उसकी तक़दीर के फैसले उसको दिए गए इख़्तियार के नतीजे में होते हैं।
मिसाल के तौर पर किसी इंसान के सामने एक वक़्त पर पांच रास्ते हैं, उनमें से एक रास्ता उसने चुना उसके बाद फ़िर उसके सामने पांच रास्ते और आते हैं, जिनमें से फ़िर वो कोई एक रास्ता चुनता है, फ़िर उसके सामने तीन रास्ते और आते हैं, उनमें से फ़िर वो कोई एक रास्ता चुनता है। तो यहां इंसान ने जो रास्ता चुना उसका इल्म तो अल्लाह को था ही लेकिन उसके साथ जो रास्ते उसने छोड़ दिए अगर वो उन रास्तों को चुनता तो उसके साथ उस हर रास्ते पर क्या क्या होता आगे और कौन कौन से रास्ते आते, अल्लाह को उन सब का इल्म है, और यही अल्लाह की क़द्र है, जिसे हम इंसान की तक़दीर कहते हैं।
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मुनाफ़िक़
मुनाफ़िक़ लफ्ज़ का माद्दा है ‘न‘ ‘फ़‘ ‘क़‘ जिसका लफ्ज़ी मतलब होता है ‘दो सिरों वाला‘ या ‘दो मुंह वाला‘। जैसे कि चूहे का बिल या पानी का पाइप जिसमें एक तरफ से आकर दूसरी तरफ से निकला जा सकता है।
क़ुरआन ने मुनाफ़िक़ लफ्ज़ उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया है जिनके दिलों में ईमान एक तरफ से दाख़िल होता है और दूसरी तरफ से निकल जाता है, उनके दिलों में ईमान ठहरता नहीं है।
मुनाफ़िक़त पैदा ही ईमान की कमी से होती है, जितना ईमान जाता है उतनी मुनाफ़िक़त आती है।
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फ़िरक़ा
क़ुरआन के मुताबिक़ किसी भी जमाअत को फ़िरक़ा तब कहते हैं, जब आपस में भाई के जज़्बात ख़त्म हो जाए, एक दूसरे से नफ़रत और दुश्मनी हो जाए, बाहमी अपनापन और भाईचारा न रहे। दो जमातों के दरमियान इख़्तिलाफ़े नज़रिया और इख़्तिलाफ़े राय तो हो सकता है। लेकिन ये सोच कि सिर्फ हम ठीक बाकी सब ग़लत, जहां उनके नज़दीक इसलाह की कोई गुंजाइश न बची हो, ये फ़िरक़े की अलामत है।
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मौत/वफ़ात
आमतौर से लोग मौत और वफ़ात, इन दोनों लफ़्ज़ों को एक–दूसरे की जगह पर इस्तेमाल कर लेते हैं। लेकिन क़ुरआन में ये अल्फाज़ दो अलग–अलग घटनाओं के लिए इस्तेमाल हुआ है।
वफ़ात का मतलब होता है कुछ ‘निकाल लेना‘ या ‘ले लेना‘ जैसे कि नींद के वक़्त में इंसान के जिस्म से उसकी नफ़्स को क़ब्ज कर लिया जाता है। और मौत के वक़्त इंसान की नफ़्स और रूह दोनों को क़ब्ज़ कर लिया जाता है। तो मौत एक क़िस्म की वफ़ात होती है लेकिन हर वफ़ात मौत नहीं होती है।
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फ़ासिक़
फ़ासिक़ का असल मतलब है हद से बढ़ जाना या हदें तोड़ कर निकल जाना। अल्लाह की नाफरमानी करने, उसने दीन में जो हदें मुक़र्रर की हैं उनसे बाहर निकलने वाले को क़ुरआन ने फ़ासिक़ कहा है।
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इलाह
इलाह सिर्फ उसे नहीं कहते हैं जिसकी इबादत की जाए। इलाह लफ्ज़ में बेइंतिहा सिफ़ात शामिल हैं। ये एक हैरत का मक़ाम है। तमाम अच्छी सिफ़ातों का मजमूआ है। इलाह मतलब पैदा करने वाला, परवरिश करने वाला, ऊंचा उठाने वाला, विकसित करने वाला, पालने वाला, हुक्म देने वाला, क़ाबू करने वाला, क़ायम करने वाला, मुहैय्या कराने वाला, उसी की बंदगी की जाए, उसी के हुक्म की इत्तिबा की जाए, उसी के आगे सर झुकाया जाए, हर तरह से उसी की इताअत क़ुबूल की जाए।
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इस्म
इस्म किसी की पहचान या निशानी होती है। ये ऐसी पहचान होती है, जिससे लोग वाक़िफ हूं। जिससे लोगों की समझ में आ जाए कि किसके बारे में बात की जा रही है। किसी की ऐसी पहचान जो उसका तआरुफ़ कराये।
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ईमान
ईमान सिर्फ़ ज़बान से कुछ कहने या मानने की बात नहीं है। ईमान के कुछ तक़ाज़े हैं, जिनको पूरा करके ईमान को अमली तौर पर साबित करना, असल ईमान है।
ईमान कहते हैं:- ‘क़ानून की सदाक़त (सच्चाई) पर मुकम्मल यक़ीन’
अल्लाह के दिए हुए क़ानून और उसूलों पर दिल की गहराइयों से ये यक़ीन होना कि जो कुछ बताया गया है उसी के मुताबिक़ नतीजा मिलेगा उसके ख़िलाफ़ या उससे अलग कुछ भी नहीं होगा और जिन चीज़ों से रोका गया है उनका नतीजा हलाकत और तबाही है इसका पूरा यक़ीन होना। इस बात पर आख़िरी दर्जे का यक़ीन होना ही ईमान है। इंसान को जब किसी बात का पूरा यक़ीन होता है, तो वो उसी के मुताबिक़ अमल भी करता है।
मिसाल के तौर पर:- अगर किसी घर में बहुत तेज़ आग लगी है तो कोई भी उस घर में दाख़िल नहीं होगा क्योंकि सबको इस बात का पूरा यक़ीन है कि अगर इस घर में गए तो बुरी तरह आग में जल जाएंगे और इसका बहुत ख़तरनाक अंजाम होगा। इस दर्जे के यक़ीन को ईमान कहते हैं।
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रहमान/रहीम
रहमान और रहीम इन दोनों अल्फ़ाज़ का माद्दा है रहम। अरबी ज़बान में मां के पेट में जहां बच्चा पलता है, उसको भी रहम ही कहा जाता है। मां के रहम में बच्चे की ज़रूरत का सारा इंतज़ाम होता है, बच्चे की इरतिका और विकास के लिए उसको जिन भी चीजों की ज़रूरत होती है वो उसको फ़रआम होती रहती हैं। तो रहम या रहमत उसे कहते हैं जिससे किसी की ज़रूरत पूरी हो जाए।
रहमान अल्लाह तआला की रहमत की वो सिफ़त है जिसमें बेपनाह रहमत का जोश होता है। जैसे तूफ़ानी बारिश- झमझम झमझम। जो एक बार में बेतहाशा जोश के साथ सब पर बरस जाए। अल्लाह की रहमत की वो सिफ़त जो सबके लिए आम है, चाहे कोई उसका मुंकिर हो या बाग़ी हो। सूरज, हवा, पानी, मिट्टी, इल्म, सलाहियत ये सब कुछ अल्लाह के नाफरमानों के लिए भी आम है, ये उसकी रहमानियत है।
रहीम अल्लाह तआला की रहमत की वो सिफ़त है जिसमें तसलसुल होता है। ऐसी बारिश जो लगातार हो, कभी न रूकने वाली। अल्लाह की रहीमियत की सिफ़त ख़ास उनके लिए है जो उसके क़ानून की पाबंदी करते हैं। जो क़ानून अल्लाह तआला ने हमें बताए हैं अगर हम उसकी इत्तिबा करेंगे, तो हमें उसका अच्छा नतीजा मिलता रहेगा, ये अल्लाह की रहीमियत की सिफ़त है।
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अहद/वाहिद
अहद और वाहिद दोनों का मतलब ‘एक’ होता है लेकिन दोनों में थोड़ा फ़र्क़ है।
वाहिद मतलब- एक। मेरे पास एक-वाहिद कलम है, जैसे कलम दुनिया में और बहुत से हो सकते हैं।
लेकिन अहद कहते हैं ‘ऐसे एक’ को जिसके जैसा दुनिया में कहीं कोई न हो- बिल्कुल यकसां अकेला।
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रब
रब का मतलब- परवरिश करने वाला, पालने वाला, लगातार इरतिका करने वाला, लगातार विकास करने वाला, आगे ले जाने वाला, ऊंचा उठाने वाला, तज़किया करने वाला, परवान उठाने वाला, पालन-पोषण करने वाला- यह सब होता है।
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यौम
आमतौर से यौम का मतलब दिन समझा जाता है, और आम बोलचाल में अरब में इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल भी ये 24 घंटों के दिन-रात के लिए ही किया जाता है। लेकिन क़ुरआन में यह लफ़्ज़ मुख़तलिफ़ औक़ात के वक़्फों के लिए इस्तेमाल हुआ है, जैसे कि 24,000 साल और 50,000 हज़ार साल।
अतः इससे हमें यह पता चलता है कि एक ख़ास औक़ाते-वक़्फ़ (समय-अन्तराल) को यौम कहते हैं।
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दीन
दीन लफ़्ज़ के अरबी ज़बान में बहुत से मतलब होते हैं, और क़ुरआन में भी ये लफ़्ज़ मुख़तलिफ़ अर्थों में इस्तेमाल हुआ है।
दीन का मतलब शक्ति, सामर्थ्य, ग़ल्बा, इक़्तिदार, मिल्कियत, सत्ता, निज़ाम, व्यवस्था, इताअत, क़ानून- ये सब होता है।
क्योंकि दीन का एक मतलब क़ानून भी है, और क़ानून के ज़रिए लोगों का हिसाब-किताब होता है और उनके किए हुए कर्मों का फ़ल मिलता है, इसलिए क़ुरआन में दीन लफ़्ज़ बदले और जज़ा के अर्थों में भी इस्तेमाल हुआ है।
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इबादत
इबादत, अब्द से बना है- जिसका मतलब होता है बंदा या ग़ुलाम, तो इबादत का मतलब हुआ बंदगी (ग़ुलामी)। मआबूद- जिसकी ग़ुलामी (बंदगी) की जाए।
उर्दू में इबादत या मआबूद का मतलब बहुत महदूद हो जाता है। आमतौर से जब हम इबादत बोलते हैं तो उससे रोज़ा, नमाज़, हज, ज़कात बस इतना ही मतलब समझा जाता है। मआबूद से समझते हैं कि जिसकी पूजा की जाए। कुछ रस्मों या मनासिक को इबादत समझते हैं लोग।
जबकि इबादत बहुत वसी लफ़्ज़ है, इबादत, बंदगी, ग़ुलामी चंद घंटों या कुछ दिनों की नहीं होती है। ग़ुलामी तो 24 घंटों की होती है, हर पल, हर लम्हे की होती है। बंदगी तो सोते-जागते हर वक़्त की होती है। खाना-पीना, उठना-बैठना, लिखना-पढ़ना, कोई नेक काम करना सब इबादत है। बंदे की सारी ज़िन्दगी उसके मालिक की इबादत में गुज़रती है। ज़िंदगी का हर लम्हा ऐसे गुज़रे जैसे मालिक को पसंद है, जिसमें मालिक की रज़ा है, मालिक की पसंद के ख़िलाफ़ कुछ करने का सोचे भी नहीं, यही बंदगी या इबादत का असल मफ़हूम है।
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इआनत/इस्तिआनत
इआनत और इस्तिआनत दोनों का मतलब मदद होता है लेकिन दोनों में कुछ फ़र्क़ है।
इआनत उस मदद को कहते हैं जो इंसान इस दुनिया में माद्दी तौर पर असबाब के ज़रिए एक-दूसरे के लिए करते हैं। जो हमें ज़ाहिरी तौर पर महसूस होता है।
इस्तिआनत सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ से होती है, इसमें किसी और का कोई दख़ल नहीं होता। ये माद्दी दुनिया से बाहर की मदद होती है। वो ज़राए, वो असबाब अल्लाह तआला अपने अम्र से पैदा करता है जिसके नतायज यहां इस दुनिया में ज़ाहिर होते हैं।
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आलम-ए-अम्र/आलम-ए-ख़ल्क़
आलम-ए-अम्र/आलम-ए-ख़ल्क़
आलम-ए-अम्र और आलम-ए-ख़ल्क़, इसे एक मिसाल से समझते हैं।
कोई शायर या लेखक जब कोई शायरी या लेख लिखता है तो जब पहली बार वो क़लम-काग़ज़ पर अपने ख़्यालों को उतारता है, तो वो शायरी/लेख की रचना तब उसने पहली बार नहीं की।
ये तो वो पिछले काफ़ी अर्से (समय) से अपने दिमाग़ में लिख रहा था और मिटा रहा था। इसे काग़ज़ पर ज़ाहिर करने से पहले वो अपनी सोच में अलग-अलग अल्फ़ाज़ और जुमलों से खेल रहा था। फ़िर अंत में नतीजों को उसने काग़ज़ पर ज़ाहिर किया।
तो इसमें ये सोच में जो भी तदबीरें चल रही थी वो आलम-ए-अम्र की मिसाल है और जब वो क़लम-काग़ज़ से ज़ाहिर होकर सबके सामने आ गया वो आलम-ए-ख़ल्क़ की मिसाल है।
अल्लाह तआला हमारी इस माद्दी दुनिया के लिए जो भी फ़ैसले और तदबीरें करता है वो सब उसके आलम-ए-अम्र का हिस्सा है, जब अल्लाह के फ़ैसले असबाब के ज़रिए इस दुनिया में माद्दी तौर पर ज़ाहिर होते हैं, तब वो आलम-ए-ख़ल्क़ का हिस्सा बन जाते हैं।
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किरामन कातिबीन
आमतौर से लोगों का तसव्वुर है कि हमारे एक कंधे पर किरामन बैठा होता है और एक पर कातिबीन, और वो हमारे सब अच्छे बुरे आमाल को लिख रहे होते हैं, जो कि सही नहीं है। यह सिफ़ाती नाम है, किरामन मतलब बहुत बुज़ुर्ग और कातिबीन मतलब रिकॉर्डर्स। यह उन फरिश्तों का सिफ़ाती नाम है जिन्हें अल्लाह तआला ने हमारे आमाल की रिकार्डिंग के लिए मुकर्रर किया है। अब रिकार्डिंग की शक्ल और फ़ितरत कैसी है वो हम नहीं जानते।
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सलात
सलात, सिर्फ हमारी पांच वक्त की नमाज़ को नहीं कहते हैं और जिसको हम आम भाषा में नमाज़ पढ़ना कहते हैं वो सलात नहीं है। सलात तो एक पूरे निज़ाम को कहते हैं। अल्लाह ने हमें दीन का जो पूरा निज़ाम दिया है अदल का-शांति का उसके निफास को सलात का कयाम कहते हैं। हमारी पांच वक्त की नमाज़ें भी उसी वसी निज़ाम का एक छोटा सा हिस्सा है। हमें समाज में उस अदल के इशतिमाई निज़ाम को क़ायम करने के लिए, ज़्याती तौर पर, छोटे पैमाने पर पांच वक्त की सलात के कयाम की मश्क कराई गई, लेकिन यह हमारे असल मक़सद तक पहुंचने की सिफ्र ट्रेनिंग है- मक़सद नहीं। सलात एक बहुत ही जामे लफ्ज़ है, जिसके मफहूम में दुआ, रहमत, निज़ाम यह सब शामिल है।
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ईमान बिल-ग़ैब
ईमान बिल-ग़ैब का मतलब बिना देखे मानना होता है, बिना समझे नहीं। जैसे हमने हवा को नहीं देखा लेकिन हमें उसके सबूत मिलते हैं, हवा चलती है तो पत्ते हिलते हैं, कपड़े उड़ते हैं, हम हवा को महसूस कर सकते हैं- इसे ही ईमान बिल-ग़ैब कहते हैं। किसी ऐसी चीज़ की मौजूदगी का मुकम्मल यक़ीन होना जिसे हमने कभी देखा तो नहीं, लेकिन हमें उसके होने के सबूत मिलते हैं, अपनी समझ और हवास के ज़रिए से हम उसे महसूस कर सकते हैं।
क़ुरआन कहीं पर भी हमसे बिना समझे मानने के लिए नहीं कहता है, बल्कि क़ुरआन तो हर जगह सबूतों और दलीलों से बात करता है।
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नजात
नजात का मतलब होता है किसी वक़्ती (क्षणिक) परेशानी या मुसीबत से निकल जाना। किसी मुसीबत से छुटकारा पाना। इस्लाम नजात की बात नहीं करता है। इस्लाम सिर्फ़ मुसीबत या तकलीफ़ से निकलने का नहीं, बल्कि बेहतरीन बदले और कामयाबी का तसव्वुर देता है।
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फ़लाह
अरब के लोग किसान को फ़ल्लाह कहते थे। उसी से लफ्ज़ फलाह बना है। किसान अपनी फसल के लिए लगातार मेहनत करता है। खेत में हल जोतता है, रोज़ समय पर पानी और खाद्य डालता है। जब तक फ़सल कट नहीं जाती वह, उसकी पूरी उम्मीद के साथ देखभाल करता है। फ़िर उसकी इतने समय की मेहनत और लगातार कोशिश के नतीजे में उसे अच्छी फ़सल मिलती है।
इसी तरह जब इंसान लगातार कोशिश से अच्छे आमाल करता रहता है। तो उसको उसके अच्छे कर्मों का बेहतरीन नतीजा मिलता है। इसे ही फलाह कहते हैं।
क़ुरआन में फलाह लफ्ज़ ईमान वालों को उनके नेक आमाल के नतीजे में जो अजर और क़ामयाबी हासिल होती है, उसके लिए इस्तेमाल हुआ है।
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तफ़क्कुह
तफ़क्कुह मतलब होता है ग़ौर-ओ-फ़िक्र से किसी चीज़ की गहराई तक पहुंचना। किसी चीज़ के ज़ाहिर से उसकी बारीकियों का पता लगाना। किसी चीज़ को सिर्फ ऊपर ऊपर से लेकर उसकी असल कैफ़ियत तक पहुंचना।
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इस्लाह
इस्लाह मतलब है संतुलन/तवाज़ुन को क़ायम रखना या वापस लाना।
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तवल्ला
इस शब्द के दो अर्थ होते हैं-
1.पलटना या पीठ फेरना, पीछे हटना
2. विलायत और वाली मतलब हुकूमत और हुक्म करने वाला, इसी माद्दे से बना है तवल्ला मतलब हुकूमत में आना, ताक़त में आना, इक़्तेदार मिलना, शक्ति व सामर्थ्य प्राप्त होना।
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मिहाद
मिहाद मतलब बिस्तर या पालना होता है। बा मुहावरा अर्थ ठिकाना भी लिया जा सकता है।
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ख़ालिक़
किसी चीज़ से कुछ और बना देना, पहले से कुछ मौजूद था उसका इस्तेमाल कर के कुछ और बनाना इसे कहते हैं तख़लीक़। और तख़लीक़ करने वाले को ख़ालिक़ कहते हैं।
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बन्दा
बन्दे होने का मतलब ये है कि उस एक ईश्वर के दिए हुए क़ानून को मानना और उसी पर अमल करना। उसने जो कुछ करने को कहा है उसे अपने जीवन में अपनाना। अपनी सारी ज़िन्दगी उसकी मर्ज़ी, उसके दिए हुए क़ानून के हिसाब से जीना।
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समा
समा लफ्ज़ क़ुरआन में तीन अर्थों में आया है:-
- ऊंचाई, बुलंदी
- सात आसमानों (समावात) में से ये पहला आसमान, ये कुल कायनात, युनीवर्स, जिसके बारे में क़ुरआन ने कहा है कि इसको हमने सजा रखा है- चांद-तारों से, सितारों-सय्यारों से, ये सारा बृहमांड जिसमें सब गृह, उपग्रह और गैलेक्सी मौजूद हैं।
- इस पहले आसमान पर ही सात पर्तें और हैं उसे भी अल्लाह ने क़ुरआन में समावात और समा कहा है। ये सात हिफाज़ती पर्तें हैं, बाहर से आने वाली नुकसानदायक चीज़ों से हमारी रक्षा करती हैं।
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अंदाद
अंदाद, निद की जमा है। निद मतलब होता है प्रतिद्वंद्वी/मुखालिफ़। अंदाद मतलब एैसे सांझी या शरीक जो उतनी ही ताक़त से उससे दूर या उल्टी तरफ ले जाए जितनी शक्ति से वो तुम्हें अपनी तरफ़ खींच रहा है। जिस कामयाबी और इरतिका की तरफ अल्लाह तुम्हें बुला रहा है तुमको उससे दूर कर दे।
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हिदायत
आम तौर पर लोग हिदायत का मतलब ऐसे समझते हैं जैसे की अल्लाह जिसे चाहता है उसे ठीक राह पर चला देता है। लेकिन हिदायत का असल मतलब सीधे रास्ते पर चलाना नहीं है बल्कि सीधे रास्ते की तरफ रहनुमाई करना – मार्गदर्शन करना है। हिदायत मिलती भी उसे ही है जो उसको तलाशने की कोशिश करता है।
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शजरा
शजरा का आम अनुवाद पेड़ या दरख़्त होता है। लेकिन बुनियादी तौर पर शजरा शब्द ऐसी किसी भी चीज़ के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है जिसकी शुरुआत या स्रोत एक ही हो किन्तु आगे चलकर वो अलग-अलग शाखाओं में बंट जाए। कोई भी ऐसी चीज़ जो शुरू तो एक ही बिंदु से हुई हो किन्तु आगे चलकर के वह विभिन्न अलग-अलग दिशाओं में फ़ैल जाए या बिख़र जाए। इसी कारण से पेड़, दरख़्त, ख़ानदान, वंश या नस्ल भी शजरा के अर्थ में शामिल हो गए हैं।इन अर्थों के अलावा क़ुरआन में शजरा शब्द ऐसे समूह के लिए भी इस्तेमाल किया गया है जो पहले तो एकजुट हो किन्तु आगे चलकर कुछ आपसी मन-मोटाव के कारण अलग-अलग समूहों में बंट गया हो।
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